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महात्मा गाँधी और शिक्षा में अहिंसा का अभिनव प्रयोग

महात्मा गाँधी  और शिक्षा में अहिंसा का अभिनव प्रयोग
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महात्मा गाँधी इस बात के हिमायती थे कि अहिंसा की शिक्षा हर एक भारतीय को बचपन से ही दी जानी चाहिए. इसके लिए वे विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को समाहित करने पर जोर देते थे, जिससे बच्चों के अन्दर अहिंसा का विकास हो सके. इसका अभिनव प्रयोग उन्होंने अपने द्वारा प्रतिस्थापित गुजरात विद्यापीठ में किया था. जब भी महात्मा गाँधी अहमदाबाद में होते थे, जो विद्यार्थियों से जरूर मिलते थे. इसी तरह का एक प्रसंग यहाँ दे रहा हूँ.

महात्मा गाँधी हर सप्ताह गुजरात विद्यापीठ में विद्यार्थियों से बातचीत करने के लिए जाते थे. विद्यार्थी वहां अनेक प्रशन पूछते थे. यह प्रश्न भी एक विद्यार्थी ने वहीँ किया था.

जो भी कोई अहिंसा में बातचीत शुरू करता है, उसके सामने कुछ छोटे-मोटे प्रश्न खड़े हो जाते हैं. जैसे क्या कुत्ता, शेर, भेड़िया, सांप आदि को मारना वांछनीय है? या बैगन अथवा आलू खाना चाहिए या नहीं? या फिर यह प्रश्न किया जाता है, कि सेना रखना अथवा शस्त्र द्वारा आक्रमण का सामना करना ठीक है या नहीं? कोई यह जानने का कष्ट करता है कि अहिंसा के सिद्धांत शिक्षा पर कैसे लागू किये जाएँ? क्या आप इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?

प्रश्न के प्रारंभिक भाग से यह प्रगट है कि बहुधा कितने सीमित दृष्टिकोण से प्रश्न किये जाते हैं. अक्सर हिंसक जीव और निम्न कोटि के जानवरों पर अपनी शक्ति का प्रयोग करके हम प्रगट करते हैं कि हम अपने मौलिक कर्तव्यों को भूल जाते हैं. प्राय: हम लोगों में बहुत कम को अपने दैनिक जीवन में प्राण घातक जीवों को मारने का प्रश्न उठता है. हम लोग अधिकांश ऐसे हैं, जिनमे घातक साँपों को मारने के लिए अहिंसा में काम लाने के प्रति साहस और प्रेम विकसित नहीं हुआ. हम अपने अन्दर के दुर्भाव और क्रोध दे सर्पों को कष्ट नहीं दे सकते. पर हम आक्रमणकारी जीवों को मारने का तुच्छ प्रश्न उठाने का साहस करते हैं और इस प्रकार हम एक दुर्वृत्ति की वृत्ति में चक्कर काटते रहते हैं. हम मौलिक कर्तव्यों में असफल होते हैं और उससे अपनी आत्मा को संतोष देते हैं कि हम घातक जीवों की हत्या करने से विमुख होते हैं. जो अहिंसा का प्रयोग करने की इच्छा रखता है. उसे थोड़े दिन के लिए सारे सांप इत्यादि को भूल जाना चाहिए. यदि उसको उन्हें मानना ही पड़ता है, तो उसे परेशां नही होना चाहिए. परन्तु उसे लोगों के क्रोध और दुर्भावना को सहन करने का प्रयत्न करना चाहिए. विश्व प्रेम जागृत करने की यह पहली सीढ़ी है.

यदि आप चाहें तो बैगन या आलू न खाएं. लेकिन इससे यह न समझें कि आप शुद्ध आत्मा के व्यक्ति हैं या हिंसा का प्रयोग कर रहे हैं. यह विचार ही लज्जित करने के लिए काफी है. अहिंसा केवल भोजन शास्त्र से सम्बन्ध नहीं रखता. यह इसके भी ऊपर है. मनुष्य जो कुछ खाता-पीता है, वह कुछ भी नहीं है. बल्कि उसके जो पीछे जो किया है, वह है आत्म त्याग और आत्म संयम. अपने खाने की चीजो में जहाँ तक हो सके, आत्मसंयम का प्रयोग कीजिये. संयम श्लाघ्य ही नहीं, वरन अनिवार्य भी है. यही केवल अहिंसा के छोर को स्पर्श करता है. कोई भी भोजन के सम्बन्ध में विस्तृत आजादी का प्रयोग कर सकता है. यदि उसका ह्रदय प्रेम से प्लावित है और दूसरों के दुःख से दुखी होता है,विकारों से मुक्त हो गया है, अहिंसा का अवतार है, और दूसरों को अपना सम्मान करने के लिए बाध्य कर सकता है. इसके विपरीत जो व्यक्ति विकारों और स्वार्थों का दास तथा पाषाण दृश्य है, वह व्यक्ति अहिंसा से अज्ञात है, चाहे वह अपने खाने में कितना कश्पण क्यों न हो.

भारत वर्ष में सेना रखनी चाहिए कि नहीं? कोई भी व्यक्ति सरकार का हथियारबंद विरोध कर सकता है या नहीं? ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं. जिनको हमें एक दिन हल करना होगा. कांग्रेस ने इसका उत्तर अपने आंशिक कार्यक्रम में आंशिक रूप से दे दिया है. लेकिन ये प्रश्न इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि साधारण आदमी का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है. वे अहिंसा के उस पहलू को नहीं छूते, जिनका विद्यार्थी अथवा शिक्षक से सम्बन्ध है. विद्यार्थियों के जीवन के सम्बन्ध में, अहिंसा ऊंची राजनीति के प्रश्नों से बहुत दूर है. शिक्षा में अहिंसा का आधार विद्यार्थियों के पारस्परिक सम्बन्ध से है. जहाँ का सारा वायुमंडल अहिंसा के सौरभ से सुगन्धित रहता है. वहां साथ पढने वाले लड़के और लड़कियां स्वतंत्रता से भाई-बहिन की तरह रहेंगे. और भी स्वयं द्वारा निर्मित संयम का पालन करेंगे. विद्यार्थी शिक्षकों के साथ पारस्परिक सम्मान,विश्वास और वातसल्य में बंधे रहेंगे. यह शुद्ध वातावरण स्वयं अहिंसा का एक क्रमिक पाठ होगा. ऐसे वातावरण में पलने वाले विद्यार्थी अपने दया भाव और विस्तृत विचारों तथा सेवा की विशेष योग्यता के कारण विशिष्ट होंगे. सामजिक बुराइयां उनके सामने कोई कठिनाइयाँ नहीं पैदा कर सकतीं. उनके प्रेम की गहनता उनकी बुराइयों को नष्ट कर देंगी. उदाहरण स्वरुप बाल विवाह उनके लिए असंगत दिखाई देगा. वे वधु के पिता से दहेज़ मांगने को न सोंचेंगे. और वे विवाह के बाद अपनी पत्नी को भोग-विलास की सामग्री कैसे समझेंगे? ऐसे वातावरण में पलने वाला कोई युवक अथवा भाई दुसरे धर्म वाले से कैसे लड़ सकता है? कहने का अभिप्राय यह है कि यह सब या इनमे से कोई काम करते हुए कोई व्यक्ति अपने को अहिंसा का समर्थक नहीं समझ सकता है. सारांश यह है कि अहिंसा एक शक्तिशाली अस्त्र है. यह जीवन का मूल तत्व है. वास्तव में यह वीरता का गुण है. यह कायर की पहुँच से परे है. यह निर्जीव सिद्धांत नहीं है. बल्कि एक जीवित और जीवनदात्री शक्ति है. यह आत्मा का एक विशेष गुण है. इसीलिए इसे परम धर्म कहा गया है. इसलिए शिक्षक के निकट इसे शुद्ध प्रेम, निरंतर ताज़ी और सतत प्रवाहित जीवन धारा के रूप में प्रकट होना चाहिए. इसकी उपस्थिति में दुर्भावना कभी टिक नहीं सकती. अहिंसा का सूर्य घृणा, क्रोध आदि के अन्धकार को मिटाने के बाद उदय होता है. शिक्षा में अहिंसा अधिक तेज और दूर तक चमकता है और यह किसी प्रकार छिप नहीं सकती. हर एक को विश्वास रखना चाहिए कि जब विद्यापीठ अहिंसा के इस वातावरण से भर जाएगा, तब इसके विद्यार्थी किसी संकटपूर्ण स्थिति से परेशान न होंगे.

(नोट : यह लेख मेरी किताब का अंश है, इसके किसी भी अंश का प्रकाशन करने के लिए जनता की आवाज और लेखक की अनुमति आवश्यक है। )

प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी – समाजवादी चिंतक व पत्रकार

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