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समाजवादी जातीय अवधारणा और डॉ. राम मनोहर लोहिया

समाजवादी जातीय अवधारणा और डॉ. राम मनोहर लोहिया
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आज जब मैं डॉ. राम मनोहर लोहिया की जाति नीति पढ़ रहा था, तो मेरे मस्तिष्क में सैकड़ों कीड़ें कुलबुला रहे थे. कभी वे काट लेते, तो मैं पीड़ा से कराहने लगता. कभी सोचने लगता. कभी कुछ अपने आपको समझाने लगता है. मैं उस पर टिप्पणी नहीं करूंगा, पर यह सोचता हूँ कि यदि टिप्पणी नहीं करूंगा, तो मैं अपने साथ इन्साफ नहीं करूंगा. वैसे उनकी जाति नीति तत्कालीन परिस्थतियों के अनुसार ठीक हैं. पर मुझे न जाने क्यों लगता है, अब इसमें कहीं-कहीं परिवर्तन की गुंजाइश है. इसे आप पढ़िए. समाजवाद की जाति नीति को समझिये.

आज हिंदुस्तान में सभी पार्टियाँ ऊंची जाति की हैं. सभी मुंह से तो कहती हैं कि जाति प्रथा का नाश करो, बराबरी का हिन्दुस्तान कायम करो, पर कायम करो, योग्यता के आधार पर. यह योग्यता के की बात सुनने में बड़ी अच्छी लगती है. पर योग्य है कौन? 5000 वर्ष से चलती आयी योग्यता कुछ खास जातियों में आ गयी हैं. परम्परा के बाद में एक धंधे की विशिष्ठता इन खास जातियों में आ गयी है. सबसे ऊंचा काम ब्राहमण, कायस्थ चलाते हैं, तथा बनिया व्यापार चलाते हैं. योग्यता का आधार तो इन जातियों के लिए वरदान बन गया है. बलवान के हाथ में ही हथियार दिया जा रहा है. इस आधार पर पिछड़ी जातियां पिछड़ी ही रह जाती है. इस तरह की योग्यता का सिद्धांत तो जाति-प्रथा को और मजबूत बनाता है.

इसलिए अयोग्यता के आधार पर पिछड़ी जातियों को ऊंचे स्थान पर बिठाओ. दूसरी पार्टियाँ कहती है कि योग्यता को अवसर दो. पर सोशलिस्ट पार्टी कहती है कि जव अवसर दो, तब योग्यता आयेगी. पर कुछ लोग गलती से मुझे शत्रु समझ बैठे. मैं द्विजों का दुश्मन नहीं हूँ, मैं उन्ही में से उनका दोस्त हूँ. लोग समझते हैं मैं उनका नाश करना चाहता हूँ. मैं तो चाहता हूँ कि भरत के लोग इतनी शक्ति पैदा करें कि वे कृश्चेव व् अईसन को मिटा सकें. इन दोनों के सामने हम सभी हरिजन हैं. मैं तो देश के बाहर के इन ब्राह्मणों को हटाना चाहता हूँ.

ऊंच-नीच दुनिया भर में किसी न किसी रूप में मौजूद हैं. लेकिन जाति के रूप में केवल हमारे यहाँ ही ऊंच-नीच का भान मौजूद हैं. हमारे यहाँ इसको जमा दिया गया है.

ऊंच-नीच दुनिया भर में किसी न किसी रूप में मौजूद है. लेकिन जाति के रू[ में केवल हमारे यहं ही ऊंच-नीच का भान मौजूद है. हमारे यहाँ इसको जमा दिया गया है.

जातियां कैसे बनी? इसका ठीक जवाब नहीं दिया गया है. विद्वान लोग इस विषय पर पूरा अध्ययन नहीं कर पाए हैं. विद्वता कितनी कम है कि अभी तक पूरा जवाब नहीं मिला है. पहला अंदाजा है कि धंधे पर जाति बन गयी. समझ लो, जैसे कोई लुहार है. हम भी कभी लुहार रहे होंगे. हमारे पुरखे लोहे का व्यापार करते होंगे.

दूसरा जवाब बार-बार मेरे दिमाग में आता है. कोई जाति ऊंची और राजा रही होगी. उसी जाति का राजा हार गया होगा. हारने वाले दो तरह के लोग होते हैं एक जो हार मान लेते हैं. जीतने वाला राजा एक नम्बर होता था, और हारने वाला दो नंबर का. अंग्रेजी जमाने में जितनी रियासतें थीं, उनके राजा ऐसे ही दो नम्बर के राजा थे. ये चापलूस होते हैं तथा जीतने वाले राजा से संधि कर किसी तरह से जिन्दा रहते हैं, दूसरे प्रकार के हारने वाले अपनी हार मानते ही नहीं. हमेशा अपनी हेकड़ी में तने रहते हैं, टूट जाते हैं, और टूटते चले जाते हैं, पर झुकाने का नाम नहीं लेते हैं. वे हमेशा अपनी बगावत जारी रखते हैं. तेलगु में लम्बाडा जाति हैं. वे वास्तव में राजस्थान के हैं. वह जाति राजा रही होगी. राजस्थान के गाड़िया-लुहार किसी जमाने में राजा थे. हार गये, हार मानी नहीं. ऐसे हारने वाले अपने प्रण के पक्के घूमते रहेंगे. कहीं बसेंगे नहीं. फिर जीतने वाला राजा कैसे दबाएगा. गिरते- गिरते ये नीचे चले गये. पहले हालत गयी. फिर सदियों बार मन भी गिर गया. शुरुवात प्रण से हुई? दिमाग ऊंचा रहा. पर अंत मन के गिरने तक पहुच गया. ऐसी मन की गिरावट पासी, चमार, डोम, में आ गईं. ये लोग जल्दी ही मन की गिरावट ख़तम करें. पासी, चमार, डोम हो सकता है. इनमे से कोई देश के राजा रहे होंगे. ऐसे लोगों को नए राजाओं ने हजारों सालों में दबाकर नीचे ठेल दिया गया.

बनिया जाति भी दो भागों में बटी होगी. अधिक आमदनी के सेठ थोक व्यापारी वाले जनेउधारी ऊंचे बनते गये. पंडितों, पुरोहितों ने पैसे वाले सेठ, अग्रवाल बना दिया और बाकी को कलवार, तेली बना दिया. थोक व्यापार करने वाले सेठ बन गये, फुटकर वाले बनिया, कलवार रह गये. इस तरह हम देखते हैं कि काल चक्र बड़ा विचित्र है, कब किसको गिराता है, कब किसको गिराता है, पता नहीं.

इसलिए आप लोग हरिजन, शुद्र वगैरह कोई यह न समझो कि हम छोटी जाति के हैं. हो सकता है, संभव है आप राजा रहे होंगे. अपने हीन भाव को ख़तम करो. आज आप पर दोहरी मार है, पेट की मार और मन की मार. मन की मार तो आप जल्दी ख़तम कर दो. अब हिन्दुस्तान में जाति को मिटाना है. बिना इसको मिटाए कुछ नहीं होगा.

इस सिलसिले में एक जबरदस्त भूल हो रही है. देश के अखबारों में विद्वानों ने लिखा है, किताबों में प्रचार किया गया है कि जैसे-जैसे देश का आधुनिकीकरण होगा, जाति प्रथा मिटती जायेगी. ऐसी गलती मार्क्स ने भी की थी. मार्क्स जर्मन जाति का था. उसने लिखा है कि लोग रेल में एक साथ सफ़र करेंगे और विद्या पढेंगे, तो जाति धीरे-धीरे ख़तम हो जायेगी. पर हुआ उलटा ही. योरप की पढाई करने कौन गया,पिछले 150 से 200 वर्षों में जनेउधारी ही विलायत पढ़ने गये. पर लौटने पर वे बदले नहीं. उन्होंने उलटे अपनी एक अलग जाति बना ली. वे विलायत फिरते ऊंचे बनिया-बाभन-ठाकुर बन गये. मार्क्स जैसा विद्वान भी भारत के बारे में गलती कर बैठा.

फिर जाति कैसे बचेगी. हिन्दुस्तान को एक बड़ा हथियार मिल गया है. बालिग़ मताधिकार आ गया है. हर 21 वर्ष का आदमी का वोट दे सकता है. 30 या 40 साल बाद इसके नतीजे निकलेंगे. अभी ऊंची जाति वाले धोखा-धडी से बाजी मार ले जाते हैं. कुछ दिन बाद पिछड़ी जातियां चेत जायेंगी. तब जाति प्रथा मिटेगी. बालिग़ मताधिकार और जाति-प्रथा एक साथ तो नहीं चल सकते. एक को मरना पड़ेगा. हो सकता है चतुर ऊंचें लोग बालिग़ मताधिकार को ख़तम करने की साजिश करें. राजेन्द्र बाबू और विनोबा तो बालिग़ मताधिकार के खिलाफ खुले आम बोल चुके हैं. पंडित नेहरु सीधे नहीं, टेढ़े ढंग सी बोल चुके हैं. कहते हैं बालिग़ मताधिकार में बड़ा खर्च होता है. चुनाव बड़े खर्चीले होते हैं, जिससे धनी लोग ही चुनाव जीत जाते हैं. इसलिए बालिग़ मताधिकार के सीधे चुनाव को ख़तम करना अच्छा होगा. यह मुझको मालूम है. हमारे ऐसे गरीब पैसे के बिना चुनाव नहीं लड़ पाते. फिर भी बालिग़ मताधिकार के ख़तम करने की बात करना पाप है. विनोबा जैसे ऋषि-मुनि ही ऐसा करते हैं. वे कहते हैं, पहले गाँव के सरपंच चुनों. फिर गाँव के पञ्च दिल्ली के पञ्च को चुनेंगे. कैसी खतरनाक बात है, 4लाख वोटर हैं. चार हजार पञ्च गाँव होंगे. इस तरह चार लाख वोटरों का अधिकार छीन कर चार पंचों को देना चाहते हैं. तब तो इन चार हजार पंचों के बीच पौ खूब रंग दिखलायेगा. इन चार हजार पंचों घूस देना आसान होगा. पांच हजार वर्ष की जाति-प्रथा को मिटाना आसान नहीं. अगर बालिग़ मताधिकार टिक गया तो जाति-प्रथा टूट कर ही रहेगी.

जाति तोड़ने की सभी बात करते हाँ. दूसरे लोग, देश की दूसरी पार्टियाँ नारा लगती है जाति तोड़ो ओर बराबरी का हिन्दुस्तान कायम करो. जो योग्य है, लायक है, वह अफसरी पर बैठे. सुनने में बात अच्छी लगती है. प्रजा, कम्युनिष्ट, कांग्रेस सभी इसका राग गाते हैं. इसका नतीजा ख़राब होगा. हिन्दुस्तान के गरीब और योरप के गरीब में बहुत बड़ा फरक है. हिंदुस्तान के गरीब ही नहीं वह नीची जाति का भी है. इस पांच हजार वर्ष के कोढ़ को मिटाने का एक तरीका है. यह पिछड़ी जातियां लगभग पच्चासी प्रतिशत हैं, पर केवल दस जगहों पर ही मौका मिला है. इन नालायकों में से जो अच्छे हैं, उनको साठ प्रतिशत जगहों पर बैठाओ. आज तो केवल बीस लाख लोगों के अन्दर ही योग्यता भरी है. योग्यता का इंजेक्शन सभी में घुसाओ. नालायकों को मौका दो, तब लायक बन जायेंगे. देश की दूसरी पार्टियाँ कहती हैं कि योग्यता को मौका दो. हम कहते हैं, पहले मौका दो, तब योग्यता आएगी. इस तरह बराबरी का हिंदुस्तान कायम होगा.

पर यह सब इतना आसान नहीं. हरिजनों और पिछड़े लोगों में दो कमजोरियों हैं. पहला नतीजा इस साठ फीसदी से यह होगा कि आपका मन खुश हो जाएगा. पर आप अपनी कमजोरी दूर करो. केवल खुश होने से काम नहीं चलेगा. दूसरी कमजोरी यह है कि इन बड़ी जातियों का कोई थोडा पैसा पा जाता है, तो ऊंची जातियों की नक़ल करने लगता है. अहीरिन भी ठकुराइन बन कर पर्दा करने लगती है. फिर ऊंची जातियों की बुराइयों का नक़ल करने में लगे रहते हैं ऐसे लोग. यह बहुत बड़ा बुरा काम है. आप में से पढ़े-लिखे यह धनि लोग ऐसी नक़ल करने लगे, तो उनसे घृणा करो.

एक दूसरी खतरनाक सम्भावना है. छोटी जाति के छोटी तबियत के लोग कहीं जलन न फैलाने लगे. यह स्वाभाविक भी हैं. इसी जलन का इस्तेमाल किया गया था. हिन्दू-मुसलमान के मामले में. इन्होने हिंदुस्तान को चौपट कर दिया. इस जलन के सहारे ख़राब लोग उठे और नेता बन बैठे. आप में किसी को उठने के लिए जलन का इस्तेमाल मत करो. डॉ. आम्बेडकर भी इस जलन के शिकार थे. मैं उनको किसी हद तक अच्छा कहता हूँ, बुरा नहीं.

चमार के अन्दर डॉ. आंबेडकर को देख कर मुझको सहारा मिलता है. पर राष्ट्रीय लड़ाई के समय वे अंग्रेजों के साथ चले गये. उस जलन को हम समझते हैं. जब मैं गाँव की चमारहटी में जाता हूँ, और अगर मैं भंगी होता, तो हो सकता है, तब मुझमे भी जलन होती. आप लोग डॉ. आम्बेडकर की तेजस्विता और बुद्धि सीखो. जगजीवन राम की चापलूसी मत देखना. जगजीवनराम से एक बात सीखो. अपनी जाति का नहीं, सारे हिन्दुस्तान का नेता बनो. डॉ. आम्बेडकर की सबसे बड़ी गलती यह थी कि वह केवल हरिजनों के ही नेता बने. एक छोटे दायरे में ही बंद रहे. वह सारे हिंदुस्तान के नेता नहीं बन सके. अगर डॉ. आम्बेडकर सारे भारत के नेता बनने की कोशिश किये होते तो नतीजा कुछ दूसरा हुआ होता.

तीसरी कमजोरी यह है कि पिछड़ी जातियों में कुछ बड़ी जातियां (संख्या के हिसाब से) ही सामने आती हैं. वे अन्य जातियों को छोड़ देती हैं. अहीर और हरिजन ही आगे आते हैं. अहीर लगभग तीन करोड़ हैं. चमार लगभग सवा तीन करोड़ हैं. इस तरह अहीर और चमार मिलकर बाभन और ठाकुर के बराबर हैं. और यही दो प्रमुख अहीर और चमार आते हैं द्विजों की लड़ाई में आगे. यह बुरा है. इन दोनों को अपने दायरे से बाहर आना होगा और सैकड़ों अन्य पासी, धोबी, नाई, कुर्मी, तेली आदि जातियों को सामने लाना होगा. सबका नेता बनना होगा. हमारे भाषण से अहीर और चमार को तो ताकत मिलती है. पर नाई, धोबी आदि सैकड़ों जातियां बिखरी हैं. इनकी उपेक्षा होती है. यह ठीक नहीं है. खुद शोसलिस्ट पार्टी इस कमजोरी की शिकार है. जब चुनाव का मौका आता है, तो झट लोग अहीर, चमारों में से किसी को खड़ा करना चाहते हैं. जीतने की लालच, अधिक मत की चाह न के मन को हिला देती है. जल्दी से किसी को पकड़ते हैं, कि वोट ज्यादा मिले. पर अच्छा नहीं. हमें सभी पिछड़ी जातियों में से योग्यता के आधार पर नेता पैदा करना होगा. लोग कहते हैं कि पैसे की कमी हैं. पर कमजोरी अपनी है. हम गरीब के दिल को छूने की कोशिश नहीं करते. अगर हम उनका दिल छू सके, तो पैसे की कमी नहीं होगी.

अब सोशलिस्ट पार्टी की जाति नीति को सफाई के साथ समझना चाहिए. सोशलिस्ट पार्टी मन की लड़ाई और पेट की लड़ाई के साथ-साथ चलाना चाहती है. आज छोटी जाति के खेत मजूरों पर दो तरफ़ा मार पड़ती है. एक तरफ उनका पेट कटता है, दूसरी ओर उनके मन में ही भावना पैदा की जाती है कि तुम छोटी जाति के हो. कुछ लोग कहते हैं कि सिद्धांत की बात है कि बात है कि सोशलिस्ट पार्टी को अमरी,गरीब की लड़ाई चलानी चाहिए. आर्थिक समानता होने पर सामाजिक समता अपने आप हो जायेगी. लेकिन बगैर सामाजिक समता के आर्थिक समता अपने आप हो जायेगी. लेकिन बगैर सामजिक समता के आर्थिक समता का भी होना असंभव है. दोनों चीजें एक साथ जुडी हैं. लोग कहते हैं कि अमरी के खिलाफ सभी गरीब की एक पलटन खडी करो. इसके पीछे एक स्वार्थ छिपा है. गरीब बाभन, गरीब बनिया,ठाकुर और गरीब तेली, तमोली, हरिजन शूद्र, आदि की पलटन बनाओ, तो पलटन के नेता कौन होंगे. साफ़ बात है कि नेता ठाकुर-बाभन होंगे, क्योंकि उनके कुल में गत चार-पांच हजार वर्षों से नेता बनने का संस्कार चला आ रहा है. त्याग, तपस्या, पढने-लिखने की योग्यता आदि नेतागिरी की क्षमता जितनी, बाभन, बनिया, ठाकुर में हैं, उतनी पासी, कुर्मी, तेली, कुम्हार, धुनिया, जुलाहा आदि में नहीं हो सकती. आज ये सभी छोटी जाति के लोग जिनकी तादात बाभन, बनिया, ठाकुर से ज्यादा है, राजनीति के बाहर है, इन्हें अन्दर लाना होगा. इन लोगों में से नेता पैदा करना होगा. जब हरिजन और शूद्र की बात करते हैं तो कुछ लोगों को फायदा हो जाता है. वे हैं अहीर या चमार. पिछडी जातियों में अकेले अहीर और चमार की तादात अधिक जरूर है, लेकिन तेली, कुम्हार, पासी, मोमिन, जुलाहा आदि जो सभी को मिलकर करोड़ों में है और अहीर और चमार से भी ज्यादा हो जाते हैं, उनकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता. उधर भी सोशलिस्ट पार्टी को ध्यान देना है. इनमे से भी नेता बनाने की कोशिश होनी चाहिए. मुझे ख़ुशी और घमंड भी हुआ है कि बिहार राज्य में पार्टी के अन्दर पार्टी के लड़ाकू नीति के नमूना राम इकबाल बाबू हैं. जो छोटी जातियों में से आते हैं. वे पढ़े लिखे नहीं हैं, इस माने में कि अंग्रेजी नहीं जानते. एक गाँव में उन लोगों ने मारने-पीटने के लिए ललकारा. छोटी जाति के ऊपर गाँव के बड़ी जाति के लोग अन्याय कर रहे थे. राम इकबाल बाबू ने उनके खिलाफ आवाज उठाई राम इकबाल बाबू ने भीड़ से कहा- मारो-पीटो, पर मार-पीट से मेरी बात नहीं मरेगी. मारपीट के बल पर गरीबों की बात दबाई नहीं जा सकती. किसी को मारो मत, बल्कि उसकी मार सह लो. हो सकता है, इस काम में देर लगे. लेकिन धीरज रखो. धीरज तोड़ने के कारण ही हिन्दुस्तान का समाजवादी आन्दोलन चौपट हुआ है.

जब हम हरिजन और शूद्र को उठाने की बात करते हैं. तो इनमे से कौन लोग पहले उठेंगे. जो कुछ अच्छे खाते-पीते पढ़े-लिखे लोग हैं, वे पहले आयेंगे. ऐसे मौकों पर गरीब बाभन, बनिया, ठाकुर को जलन हो सकती है. ऐतराज कर सकते हैं. लेकिन मन और पेट की लड़ाई साथ-साथ चलाने में ऐसा होगा ही. सोशलिस्ट पार्टी की हुकूमत में ऐसे तेली, चमार, पासी, कुर्मी, मोमिन, जुलाहा मंत्री बने, जिनके पास जमीन नहीं है. गरीब हैं, खेत मजूर हैं. लेकिन बीच के दौरान ऐसी स्थिति आ सकती है, कुछ ऐसे अच्छे खाते-पीते, पढ़े-लिखे तेली, तमोली को स्थान देना पड़े, तो इसके लिए जलन नहीं होनी चाहिए.

आज औरतों में से नेतृत्व तैयार नहीं हो रहा है. बेपढ़ी-लिखी औरतों में से नेता तैयार करना होगा. ऐसी जाति-नीति से कुछ लोगों को द्वेष हो जाया करता है. कुछ लोगों को मेरे प्रति भी मैं किसी जाति का दुश्मन नहीं हूँ. कभी किसी के स्वार्थ पर वक्ती धक्का लगने पर वे बेखबर हो जाते हैं. कहीं ऐसा न हो जाये बड़े लोग इकट्ठा होने लगें कि सोसलिस्ट पार्टी तो छोटी जाति की पार्टी हो गयी है, तो मैं बड़ी जाति के लोगों को सलाह दूंगा वे सोसलिस्ट आन्दोलन को बढ़ाने के लिए सलाहकार का काम करें, अफसर बनने का नहीं. यह उनके स्वार्थ की भी बात है. सलाहकार के रूप में भी वे इतिहास में बहुत ऊंचा उठ सकते हैं. रोटी और मान-मर्यादा के हिसाब से आज छोटी जाति के लोग पिसते रहते हैं.

आज सबसे बड़ी गड़बड़ी यह है कि कुरता-पैजामा वाला छोटी जाति का ब्राह्मण, ठाकुर, ग्लालगोट और चूड़ीदार की ओर निहारता है. टकटकी लगाये देखता है. मैं अब गरीब ब्राह्मण, ठाकुरों से कहूँगा कि दिल्ली, लखनऊ के सामंतों की ओर से मुह फेर लो और देश के करोड़ों तेली, तमोली, हरिजन, पासी, कुर्मी, अहरी की ओर निहारो. जाति की चक्की की भूख अथाह है. यह छोटी जाति को पीस कर बड़ी जाति को पीसना शुरू करती है. जिस दिन देश के गरीब ब्राहमण, ठाकुर का एक करोड़ों कुर्मी, भर, विंड, कोयरी, अहीर, जुलाहा, पासी, चमार, भंगी,नाई आदि के साथ हो जायेगा. उस दिन एक से एक ऐसी बारूद बनेगी कि जिससे दिल्ली और लखनऊ की गंदगियाँ और कूड़ा जल कर राख हो जायेगा और नया हिन्दुस्तान बनना शुरू होगा.

कम्युनिष्टों ने यह जरूर अच्छा किया है कि एक अल्पसंख्यंक जाति वाले को केरल सरकार का मुख्यमंत्री बनाया. ऐसा करके उन्होंने ऊंची जाति वालों के विलगांव को ख़तम कर दिया. लेकिन जब हम उनकी जाति-नीति की ओर नजर डालते हैं, तो कांग्रेसियों से कोई फर्क नहीं दीखता. दरअसल जाति के मामले में कम्युनिष्ठो का के सिद्धांत है.. वे सर्वहारा की तानाशाही की बात करते हैं. लेकिन उसके साथ यह भी बात करते हैं कि सर्वहारा क्रांति के वान्गार्ड हैं. वे अगुआ हैं. यदि इस सिद्धांत का विश्लेष्ण किया जाए, तो साफ़ अर्थ निकलता है कि समाज के अंदर कुछ ऐसे लोग हैं, जो अगुआ हैं. कम्युनिष्ठों का अगुआ का यह सिद्धांत हिन्दू धर्म के सिद्धांत का ही रूप है. इनका कहना है कि संगठन करने के लिए योग्यता चाहिए. ऐसी हालत में ऊची हालत में ऊंची जाति वाले तो बहुत आगे रहेंगे, क्योंकि कई हजार वर्षों से इन्हें मौका मिलता आया है. यही कारण है कि कम्युनिष्ट जाति प्रथा का नाश करने में नाकामयाब साबित हुए हैं. दरअसल यदि जाति प्रथा को ख़त्म करना है और ऊंची-ऊंची जातियों के बीच समता लानी है तो केवल एक तरीका रह जाता है कि दबे लोगों को अवसर दिया जाए. जाति प्रथा के नाश का एकमात्र हल अवसर सिद्धांत ही हो सकता है.

आज पिछडी जाति के लोगों को एक सुझाव देता हूँ. कुछ लोग काम-धंधे के बाद शाम को कुछ घंटे पुस्तकालय में जाकर भूगोल, इतिहास,नागरिक शास्त्र आदि विषयों का अध्ययन करो. पढों और दिमाग को ऊंचा उठाओ. कलकत्ते में रहते हो तो अपने गाँव से रिश्ता कायम रखो. अपनी जाति के कुछ अच्छे लडको को पढाओ. एक बड़ी भर जाति के लोग मेरे पास आये. मदद मांगने लगे. मैंने कहा कि मैं एक तरह से मदद कर सकता हूँ. तुम भर लोगों में कोई बी.ए. पास नहीं है. तुम लोग दो सौ घर हो. घर के पीछे एक-एक रुपया दो और तुम में से किसी एक अच्छे विद्यार्थी का चुनाव मैं कर दूंगा, लेख वगैरह की प्रतियोगिता के द्वारा. फिर उसको बनारस हिन्दू विश्वविध्यालय में पढाया जाएगा. इस तरह तुम्हारी जाति में ऊंची भावना आएगी. मैं ऐसी ही सहायता कर सकता हूँ. मैं स्वयं गरीब हूँ, और मैं क्या कर सकता हूँ.

(यह लेख मेरी पुस्तक का एक अंश है, जनता की आवाज और लेखक की अनुमति के बगैर इसके किसी भी अंश का उपयोग न करें )

प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी – समाजवादी चिंतक व पत्रकार

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