Bhartendu Harishchandra Biography in Hindi | भारतेंदु हरिशचंद्र का जीवन परिचय
Bhartendu Harishchandra Biography in Hindi | भारतेंदु हरिशचंद्र आधुनिक हिंदी साहित्य और साथ ही हिंदी साहित्य के जनक के नाम से जाने जाते है। इनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र’ था, ‘भारतेन्दु’ उनकी उपाधि थी। आधुनिक भारत के सबसे प्रभावशाली हिंदी लेखको में से वे एक है। वे एक सम्मानित कवी भी है। वे बहुत से नाटको के लेखक भी रह चुके थे।
Bhartendu Harishchandra Biography in Hindi | भारतेंदु हरिशचंद्र का जीवन परिचय
- नाम बाबू भारतेन्दु हरिश्चंद्र
- जन्म 9 सितंबर सन् 1850
- जन्मस्थान वाराणसी, उत्तर प्रदेश
- पिता गोपाल चंद्र
- व्यवसाय उपन्यासकार, कवि, नाटककार
- नागरिकता भारतीय
हिंदी साहित्य के जनक भारतेंदु हरिशचंद्र (Bhartendu Harishchandra Biography in Hindi)
Bhartendu Harishchandra Biography in Hindi | भारतेंदु हरिशचंद्र आधुनिक हिंदी साहित्य और साथ ही हिंदी साहित्य के जनक के नाम से जाने जाते है। इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी। आधुनिक भारत के सबसे प्रभावशाली हिंदी लेखको में से वे एक है। वे एक सम्मानित कवी भी है। वे बहुत से नाटको के लेखक भी रह चुके थे। अपने कार्यो में उन्होंने सामाजिक राय के लिए रिपोर्ट, पब्लिकेशन, ट्रांसलेशन और मीडिया जैसे सभी उपकरणों का उपयोग किया था।
प्रारंभिक जीवन (Bharatendu Harishchandra Early Life)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी नगरी के प्रसिद्ध 'सेठ अमीचंद' के वंश में 09 सितम्बर 1850 को हुआ था। हरिशचंद्र के पिता गोपाल चंद्र थे, जो एक कवी थे। वे अपने उपनाम गिरधर दास के नाम से लिखते थे। भारतेंदु के माता-पिता की मृत्यु जब वे युवावस्था में थे तभी हो गयी थी लेकिन उनके माता-पिता के भारतेंदु पर काफी प्रभाव पड़ चूका था।
शिक्षा (Bharatendu Harishchandra Education)
चलकर क्वीन्स कॉलेज बनारस में प्रवेश लिया। बनारस में उस समय में अंग्रेजी पढ़े-लिखे और बहुत प्रसिद्ध लेखक राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द था जिनसे हरिश्चन्द्र ने अंग्रेजी सीखी। स्वाध्याय से संस्कृत, मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू भाषाए भी सीख ली। हरिश्चन्द्र को काव्य प्रतिभा तो अपने पिता से विरासत के रूप में पहले ही मिल गयी थी।
साहित्य में योगदान (Bharatendu Harishchandra Contribution to Literature)
15 वर्ष उम्र में ही साहित्य सेवा प्रारम्भ कर दी थी। 18 वर्ष की अवस्था में उन्होंने कविवचन सुधा (1868) नामक पत्रिका निकाली। 20 वर्ष में आनरेरी मजिस्ट्रेट बन गये और आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। आगे उन्होंने 1873 में हरिश्चन्द्र पत्रिका और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए बाल बोधिनी पत्रिकाओं का सम्पादन किया।
हरिश्चन्द्र ओड़िसा में पूरी के जगन्नाथ मंदिर अपने परिवार के साथ 1865 में गये थे, जब वे आयु के सिर्फ 15 वे साल में थे। इस यात्रा के समय बंगाल पुनर्जागरण काल का उनपर काफी प्रभाव पड़ा और तभी उन्होंने सामाजिक, इतिहासिक और पौराणिक नाटको और हिंदी उपन्यासों की रचना करने का निर्णय लिया था। इसी प्रभाव के चलते उन्होंने 1868 में बंगाली नाटक विद्यासुंदर का रूपांतर हिंदी भाषा में किया था।
हरिश्चन्द्र काल में हिंदी की स्तिथि बड़ी विकट हो गयी थी। अंग्रेज अपनी "फुट डालो राज करो " निति पर हिंदी की राह में तरह तरह के रोड़े अटकते थे मगर भारतेंदु ने जो हिंदी आन्दोलन चलाया वह हिन्दू-मुस्लिम सभी के लिए उपयोगी था। ठीक उसी तरह जैसे बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय और रवीन्द्रनाथ टैगोर की बंगला सेवा हिन्दू और मुसलमान सबके लिए थी। भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी में नाटको का प्रारम्भ उन्ही के काल से माना जाता है।
नाटक लिखने की शुरुवात बंगला के विद्यासुंदर (1867) नाटक के अनुवाद से हुयी। खडी बोली में अनेक नाटक लिखकर हरिश्चन्द्र ने हिंदी नाटक की नीव मजबूत की। हरिश्चन्द्र की लोकप्रियता से बहुत अधिक प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें "भारतेंदु" की उपाधि प्रदान की।
प्रसिद्ध साहित्यिक आलोचक राम विलास शर्मा ने भी उन्हें हिंदी साहित्य का सबसे प्रभावशाली और आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक और नायक बताया। साहित्य सेवा के साथ साथ भारतेंदु जी की समाज सेवा भी चलती थी। दीन दुखियो, साहित्यकरो और मित्रो की सहायता करना वे अपना कर्तव्य मानते समझते थे हालांकि इन्ही कारणों से उम्र के आखिरी वर्षो में उन्हें धन का अभाव झेलना पड़ा।
जर्नलिज्म, ड्रामा और कवी के क्षेत्र में भी भारतेंदु ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने कवी वचन सुधा जैसी पत्रिका को 1868 में एडिट किया था 1874 में उन्होंने अपने लेखो के माध्यम से देश के लोगो को देश में बने उत्पाद का उपयोग करते हुए स्वदेशी अपनाओ का नारा दिया था।
इसके बाद 1873 में भारतेंदु ने पत्रिका और बाल वोधिनी में उन्होंने देश के लोगो को स्वदेशी वस्तुओ का उपयोग करने की प्रार्थना की थी। वे वाराणसी के चौधरी परिवार के भी सदस्य थे, जो अग्रवाल समुदाय से संबंध रखते थे। उनके पूर्वज बंगाल के लैंडलॉर्ड थे। उन्हें एक बेटी भी है। उन्होंने अग्रवाल समुदाय के विशाल इतिहास को भी लिखा है।
हिन्दी के उत्थान के लिए कहना है कि:
- अंग्रेज़ी पढ़ कै जदपि,
- सब गुन होत प्रवीन।
- पै निज भाषा ज्ञान बिन
- रहत हीन कै हीन।
- हिन्दी की प्रतिष्ठा करते हुए वे कहते हैं कि:
- निजभाषा उन्नति अहै,
- सब उन्नति को भूल।
- बिन निज भाषा ज्ञान के
- मिटे न हिय को सूल।
भारतेंदु हरिशचंद्र के प्रसिद्ध नाटक (Bharatendu Harishchandra Drama)
- वैदिकी हिमसा हित्न्सा ना भवती (1873)
- भारत दुर्दशा (1875)
- पौराणिक सत्य हरिशचंद्र (1876)
- नील देवी (1881)
- चंद्रावली (1881)
- अंधेर नगरी (1881)
भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रसिद्ध कविताएँ (Bharatendu Harishchandra Poems)
- भक्तसर्वस्व (1870)
- प्रेममालिका (1872)
- प्रेम माधुरी (1875)
- प्रेम तरंग (1877)
प्रेम प्रकल्प, प्रेम फुलवारी, और प्रेम सरोवर (1883)
- होली (1874)
- मधुमुकुल (1881)
- राग संग्रह (1880)
- वर्षा विनोद (1880)
- विनय प्रेम पचासा (1881)
- फूलों का गुच्छा (1882)
- कृष्णचरित्र (1883)
- चन्द्रावली (1876)
- उत्तरार्द्ध भक्तमाल (1876-77)
मृत्यु (Bharatendu Harishchandra Death)
चिंताओं के कारण उनका शरीर शिथिल होता गया। परिणाम स्वरुप उनका मृत्यु 6 जनवरी 1885 हो गया। 34 वर्षो के जीवन काल में ने इतना लिखा, इतनी दिशाओं में काम किया कि उनका समूचा रचना कर्म पथ प्रदर्शक बन गया।