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जहां कहीं भी भीड़ बनती है, वहीं हिटलर का जर्मनी बन जाता है: रविश कुमार

गोएबल्स ने अपनी डायरी में लिखा है, “ मैं ओल्ड टाउन हॉल में पार्टी के कार्यक्रम में जाता हूं, काफी भीड़ है। मैं हिटलर को सारी बात समझाता हूं। वो तय करते हैं कि यहूदियों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन होने दो, पुलिस से पीछे हटने को कहो। यहूदियों को लोगों के गुस्से का सामना करने दो। मैं तुरंत बाद पुलिस और पार्टी को आदेश देता हूं। फिर मैं थोड़े समय के लिए पार्टी कार्यक्रम में बोलता हूं। खूब ताली बजती है। उसके तुरंत बाद फोन की तरफ लपकता हूं। अब लोग अपना काम करेंगे”

जहां कहीं भी भीड़ बनती है, वहीं हिटलर का जर्मनी बन जाता है: रविश कुमार
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जर्मनी की तमाम रातों में 9-10 नवंबर 1938 की रात ऐसी रही जो आज तक नहीं बीती है। न वहां बीती है और न ही दुनिया में कहीं और। उस रात को CRYSTAL NIGHT कहा जाता है। उस रात की आहट आज भी सुनाई दे जाती है। कभी कभी सचमुच आ जाती है। हिटलर की जर्मनी में यहुदियों के क़त्लेआम का मंसूबा उसी रात जर्मनी भर में पूरी तैयारी के साथ ज़मीन पर उतरा था। उनका सब कुछ छीन लेने और जर्मनी से भगा देने के इरादे से, जिसके ख़िलाफ़ वर्षों से प्रोपेगैंडा चलाया जा रहा था। 1938 के पहले के कई वर्षों में इस तरह की छिटपुट और संगीन घटनाएं हो रही थीं। इन घटनाओं की निंदा और समर्थन करने के बीच वे लोग मानसिक रूप से तैयार किये जा रहे थे जिन्हें प्रोपेगैंडा को साकार करने लिए आगे चलकर हत्यारा बनना था। अभी तक ये लोग हिटलर की नाना प्रकार की सेनाओं और संगठनों में शामिल होकर हेल हिटलर बोलने में गर्व कर रहे थे। हिटलर के ये भक्त बन चुके थे।


जिनके दिमाग़ में हिटलर ने हिंसा का ज़हर घोल दिया था। हिटलर को अब खुल कर बोलने की ज़रूरत भी नहीं थी, वह चुप रहा, चुपचाप देखता रहा, लोग ही उसके लिए यहुदियों को मारने निकल पड़े। हिटलर की सनक लोगों की सनक बन चुकी थी। हिटलर की विचारधारा ने इन्हें ऑटो मोड पर ला दिया, इशारा होते ही क़त्लेआम चालू। हिटलर का शातिर ख़ूनी प्रोपेगैंडा मैनेजर गोएबल्स यहूदियों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा की ख़बरें उस तक पहुंचा रहा था। उन ख़बरों को लेकर उसकी चुप्पी और कभी-कभी अभियान तेज़ करने का मौखिक आदेश सरकारी तंत्र को इशारा दे रहा ता कि क़त्लेआम जारी रहने देना है। हिटलर की इस सेना का नाम था SS, जिसके नौजवानों को जर्मनी के लिए ख़्वाब दिखाया था। सुपर पावर जर्मनी, यूरोप का बादशाह जर्मनी। सुपर पावर बनने का यह ख़्वाब फिर लौट आया है।


अमरीका फ्रांस के नेता अपने देश को फिर से सुपर-पावर बनाने की बात करने लगे हैं। "हमें इस बात को लेकर बिल्कुल साफ रहना चाहिए कि अगले दस साल में हम एक बेहद संवेदनशील टकराव का सामना करने वाले हैं। जिसके बारे में कभी सुना नहीं गया है। यह सिर्फ राष्ट्रों का संघर्ष नहीं है,बल्कि यह यहुदियों, फ्रीमैसनरी, मार्क्सवादियों और चर्चों की विचारधारा का भी संघर्ष है। मैं मानता हूं कि इन ताकतों की आत्मा यहुदियों में है जो सारी नकारात्मकताओं की मूल हैं। वो मानते हैं कि अगर जर्मनी और इटली का सर्वनाश नहीं हुआ तो उनका सर्वनाश हो जाएगा। यह सवाल हमारे सामने वर्षों से है। हम यहुदियों को जर्मनी से बाहर निकाल देंगे। हम उनके साथ ऐसी क्रूरता बरतेंगे जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की होगी।" यह भाषण आज भी दुनिया भर में अलग अलग संस्करणों में दिया जा रहा है। भारत से लेकर अमरीका तक में। SS का नेता हिम्मलर ने 9-19 नवंबर 1938 से चंद दिन पहले संगठन के नेताओं को भाषण दिया था ताकि वे यहुदियों के प्रति हिंसा के लिए तैयार हो जाएं। तैयारी पूरी हो चुकी थी।


विचारधारा ने अपनी बुनियाद रख दी थी। अब इमारत के लिए बस ख़ून की ज़रूरत थी। हम इतिहास की क्रूरताओं को फासीवाद और सांप्रदायिकता में समेट देते हैं, मगर इन संदूकों को खोल कर देखिये, आपके ऊपर कंकाल झपट पड़ेंगे। जो कल हुआ,वही नहीं हो रहा है। बहुत कुछ पहले से कहीं ज़्यादा बारीक और समृद्ध तरीके से किया जा रहा है। विचारधारा ने जर्मनी के एक हिस्से को तैयार कर दिया था। 7 नवंबर 1938 की रात पेरिस में एक हत्या होती है जिसके बहाने जर्मनी भर के यहुदियों के घर जला दिये जाते हैं। इस घटना से हिटलर और गोएबल्स के तैयार मानस-भक्तों को बहाना मिल जाता है जैसे भारत में नवंबर 1984 में बहाना मिला था, जैसे 2002 में गोधरा के बाद गुजरात में बहाना मिला था। 7 नवंबर को पेरिस में जर्मनी के थर्ड लिगेशन सेक्रेट्री अर्नस्ट वॉम राथ की हत्या हो जाती है। हत्यारा पोलैंड मूल का यहूदी था। गोएबल्स के लिए तो मानो ऊपर वाले ने प्रार्थना कबूल कर ली हो। उसने इस मौको को हाथ से जाने नहीं दिया। हत्यारे के बहाने पूरी घटना को यहुदियों के खिलाफ़ बदल दिया जाता है। यहुदियों को पहले से ही प्रोपेगैंडा के ज़रिये निशानदेही की जा रही थी। उन्हें खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा था। चिंगारी सुलग रही थी, हवा का इंतज़ार था, वो पूरा हो गया। गोएबल्स ने अंजाम देने की तैयारी शुरू कर दी। उसके अलगे दिन जर्मनी में जो हुआ, उसके होने की आशंका आज तक की जा रही है।


पिछले सात आठ सालों से हिटलर ने अपने समर्थकों की जो फौज तैयार की थी, अब उससे काम लेने का वक्त आ गया था। उस फौज को खुला छोड़ दिया गया। पुलिस को कह दिया गया कि किनारे हो जाए बल्कि जहां यहुदियों की दुकानों को जलाना था, वहां यहुदियों को सुरक्षा हिरासत में इसलिए लिया गया ताकि जलाने का काम ठीक से हो जाए। सारे काम को इस तरह अंजाम दिया गया ताकि सभी को लगे कि यह लोगों का स्वाभाविक गुस्सा है। इसमें सरकार और पुलिस का कोई दोष नहीं है। जनाक्रोश के नाम पर जो ख़ूनी खेल खेला गया उसका रंग आज तक इतिहास के माथ से नहीं उतरा है। ये वो दौर था जब यूरोप में आधुनिकता अपनी जवानी के ग़ुरूर में थी और लोकतंत्र की बारात निकल रही थी। गोएबल्स ने अपनी डायरी में लिखा है, " मैं ओल्ड टाउन हॉल में पार्टी के कार्यक्रम में जाता हूं, काफी भीड़ है। मैं हिटलर को सारी बात समझाता हूं। वो तय करते हैं कि यहूदियों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन होने दो, पुलिस से पीछे हटने को कहो। यहूदियों को लोगों के गुस्से का सामना करने दो। मैं तुरंत बाद पुलिस और पार्टी को आदेश देता हूं। फिर मैं थोड़े समय के लिए पार्टी कार्यक्रम में बोलता हूं। खूब ताली बजती है। उसके तुरंत बाद फोन की तरफ लपकता हूं। अब लोग अपना काम करेंगे" आपको गोएबल्स की बातों की आहट भारत सहित दुनिया के अख़बारों में छप रहे तमाम राजनीतिक लेखों में सुनाई दे सकती है।


उन लेखों में आपको भले गोएबल्स न दिखे, अपना चेहरा देख सकते हैं। जर्मनी में लोग खुद भीड़ बनकर गोएबल्स और हिटलर का काम करने लगे। जो नहीं कहा गया वो भी किया गया और जो किया गया उसके बारे में कुछ नहीं कहा गया। एक चुप्पी थी जो आदेश के तौर पर पसरी हुई थी। इसके लिए प्रेस को मैनेज किया गया। पूरा बंदोबस्त हुआ कि हिटलर जहां भी जाए, प्रेस उससे यहूदियों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को लेकर सवाल न करे। हिटलर चुप रहना चाहता था ताकि दुनिया में उसकी छवि ख़राब न हो। चेक संकट से बचने के लिए उसने यहूदी वकीलों के बहिष्कार के विधेयक पर दस्तख़त तो कर दिया मगर यह भी कहा कि इस वक्त इसका ज़्यादा प्रचार न किया जाए। वैसे अब प्रोपेगैंडा की ज़रूरत नहीं थी। इसका काम हो चुका था। यहूदियों के ख़िलाफ़ हिंसा के दौर का तीसरा चरण होने वाला था। 1933 की शुरूआत में जर्मनी में 50,000 यहूदी बिजनेसमेन थे। जुलाई 1938 तक आते आते सिर्फ 9000 ही बचे थे। 1938 के बसंत और सर्दी के बीच इन्हें एकदम से धकेल कर निकालने की योजना पर काम होने लगा। म्यूनिख शहर में फरवरी 1938 तक 1690 यहूदी बिजनेसमेन थे, अब सिर्फ 660 ही बचे रह गए। यहूदियों के बनाए बैंकों पर क़ब्ज़ा हो गया। यहूदी डॉक्टर और वकीलों का आर्थिक बहिष्कार किया जाने लगा। आर्थिक बहिष्कार करने के तत्व आज के भारत में भी मिल जायेंगे। आप इस सिक्के को किसी भी तरफ से पलट कर देख लीजिए, यह गिरता ही है आदमी के ख़ून से सनी ज़मीन पर। यहूदियों से कहा गया कि वे पासपोर्ट पर J लिखें। यहूदी मर्द अपने नाम के आगे इज़राइल और लड़कियां सैरा लिखें जिससे सबको पता चल जाए कि ये यहूदी हैं। नस्ल का शुद्धिकरण आज भी शुद्धीकरण अभियान के नाम से सुनाई देता ही होगा।

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