Janskati Samachar
Top News

मंदिर में नमाज पढ़ते वक्त शांति रही, तसवीर पर बरपा हंगामा

मंदिर में नमाज अनुमति लेकर पढ़ी गयी थी। नमाज पढ़ने वालों ने प्रसाद ग्रहण भी किया। कोई बुरी नीयत दिखाई नहीं देती। शायद इसलिए कोई आपत्ति तब नहीं आयी।

मंदिर में नमाज पढ़ते वक्त शांति रही, तसवीर पर बरपा हंगामा
X

मथुरा के नंदगांव में नंदबाबा मंदिर परिसर में नमाज पढ़ने की तस्वीर से हंगामा बरपा है। दो मुस्लिम और दो हिन्दू देश में भाईचारगी का संदेश देने के लिए निकले थे। मगर, ऐसी बहस को जन्म दे बैठे जो भाईचारगी को नुकसान पहुंचाती है। इरादे और मंशा पर चर्चा बाद में, मगर सबसे पहले सबसे ज्वलंत सवाल को लें- क्या किसी मस्जिद में आरती, पूजा, सूर्य नमस्कार, वंदना, प्रार्थना, जैसे आयोजनों की अनुमति दी जा सकती है?

इस प्रश्न का उत्तर अतीत में सहिष्णुता की जो गहराई थी, उसमें ढूंढ़ें। कबीरदास ने कहा था-

कंकर-पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय,

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे का बहरा भया खुदाय?

कबीर दास ने तो मूर्ति पूजा का भी जबरदस्त विरोध किया था-

पाथर पूजें हरि मिलें तो मैं पूजूं पहाड़

इससे तो चक्की भली, पीस खाए संसार

कबीरदास ने न इस्लाम को बख्शा और न हिन्दू धर्म को। लेकिन, उनकी गर्दन बची रही। ऐसी सहिष्णुता रही है हिन्दुस्तान में।

भारतीय भूमि पर बौद्ध, जैन और सिख धर्म का उद्भव हिन्दू धर्म की बुराइयों को खत्म करने की कोशिश में ही हुए। गुरनानक देव ने तो यहां तक कहा था कि ईश्वर तक हर इंसान पहुंच सकता है और ईश्वर और मनुष्य के बीच न कोई पुजारी आ सकता है न मौलवी। डॉ भीम राव अम्बेडकर ताजा उदाहरण हैं जिन्होंने मनुस्मृति जलाने का आह्वान तक कर डाला। फिर भी, धार्मिक सहिष्णुता कभी टूटी हो, इसके उदाहरण नहीं मिलते। किसी ने डॉक्टर अम्बेडकर से यह नहीं पूछा कि क्या वे किसी और धर्म के ग्रंथों को जलाने की बात कह सकते हैं? 'होइहें वही जो राम रचि राखा' की सोच और उसकी व्यापकता से बंधकर ही इस सहिष्णुता को बचाए रखा जा सका है।

मंदिर परिसर में नमाज पढ़ते वक्त शांति, तस्वीर पर हंगामा!

जरा सोचिए कि 29 अक्टूबर को साक्षात दो युवकों को नमाज पढ़ते हुए देखकर भी तत्काल कोई प्रतिक्रिया मंदिर परिसर में नहीं हुई तो क्यों? तस्वीर में भी अन्य लोग दिख रहे हैं। जाहिर है मंदिर परिसर में नमाज पढ़े जाते वक्त कई अन्य लोगों का भी आना-जाना रहा होगा। सबने इसकी अनदेखी की जैसे यह आम बात हो। इसका मतलब यह है कि मंदिर परिसर के भीतर परंपरागत हिन्दूवादी सोच जीवंत थी। परिसर में 'ईश्वर-अल्लाह तेरे नाम' का वातावरण रहा होगा। शायद इसलिए नमाज पढ़ने को लेकर कोई बेचैनी नज़र नहीं आयी।

साक्षात् घटना जब तस्वीर बनकर सोशल मीडिया में फैली तो 'मंदिर में नमाज' का शोर उठ गया। मेरे मंदिर में तेरे खुदा को कैसे याद किया जा सकता है?- यह सवाल उठ गया। इसके साथ ही सवाल यह भी उठा कि क्या तुम अपने मस्जिद में मेरे ईश्वर को याद करने दोगे?

कट्टरता मंदिर में नहीं, मंदिर से बाहर दिखी

किसी भक्त के लिए हमेशा ऐसे सवालों का जवाब इबादत को आगे बढ़ाने वाले निमंत्रण देने और स्वीकारने वाला होगा, चाहे वो पुजारी हो या नमाजी। मगर, धर्म या मजहब का कट्टरवाद किसी भक्त को इतना उदार रहने नहीं देता। यही वजह है कि मुस्लिम कट्टरपंथी कहते हैं कि मस्जिद के भीतर पूजा की इजाजत इस्लाम नहीं देता। और, यही वजह है कि कि उदार हिन्दूवाद नमाज पढ़े जाते वक्त खामोश था।

कट्टरता का आवरण धीरे-धीरे तब चढ़ने लगा जब नमाज पढ़ने की तस्वीर वायरल हुई। जब फिजां पवित्र थी तब नमाज पढ़ते वक्त कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। प्रतिक्रिया तब हुई जब फिजां अपवित्र हो गयी। यह प्रतिक्रिया 'शुद्धिकरण' के उपक्रम में दिखी। फिर एफआईआर हुए। गिरफ्तारी हुई। मीडिया में ऐसे सवाल गरम होने लगे कि जब एक धर्म में कट्टरता है तो दूसरे धर्म में क्यों नहीं?

अब उन लोगों पर बात करते हैं जिस बारे में चर्चा करना हमने थोड़ी देर के लिए मुल्तवी रखा था। जिन लोगों ने नमाज पढ़ी, वे कौन हैं? उनका मकसद क्या है? क्या वे मंदिर को अशुद्ध कर रहे थे? क्या मंदिर में नमाज पढ़कर कोई मजहबी शौर्य दिखाना चाहते थे? वायरल हुई तस्वीर में फैजल ख़ान और मोहम्मद चांद नमाज पढ़ते दिख रहे हैं। उनके साथ दो हिन्दू भी मंदिर परिसर में थे- नीलेश गुप्ता और आलोक रत्न। सभी के खिलाफ नफरत फैलाने समेत कई अन्य धाराओं में केस दर्ज हुए हैं। फैजल की गिरफ्तारी हो चुकी है।

कोई समझे फैजल की माफी, सर्वधर्म समभाव का मकसद

फैजल ने उन सभी लोगों से माफी मांगी है जिनकी भावनाएं मंदिर परिसर में उनके नमाज पढ़ने से आहत हुई हैं। उन्होंने अपनी साफ नीयत की दुहाई देते हुए बताया है कि वे और उनके साथ के बाकी तीनों लोगों ने मंदिर परिसर में कोसी परिक्रमा की। पूजा की। प्रसाद ग्रहण किए। ये सभी धार्मिक सद्भाव यात्रा पर थे। इन सबका संबंध खुदाई खिदमतगार नामक संगठन से है। यह वही संगठन है जिसे 1929 में भारत रत्न ख़ान अब्दुल गफ्फार खान ने बनाया था। जी हां, वही सीमांत गांधी जिनके पास अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत तीनों देशों की नागरिकता थी। वही फ्रंटियर गांधी जिन्होंने भारत-पाकिस्तान के बंटवारे अकेले विरोध किया। वही गांधीवादी देशभक्त जिन्होंने आजादी के बाद भी अपने जीवन का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान की जेलों में बिताए। हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव के लिए जीवन भर ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान समर्पित रहे। भारत रत्न से हमने उन्हें 90 के दशक में सम्मानित किया था।

आज का प्रश्न यह नहीं है कि फ्रांस में एक शिक्षक को पढ़ाते वक्त मोहम्मद साहब के कार्टून को दिखाकर एक भयावह घटना को याद दिलाने पर छात्र उसकी गर्दन काट ले तो वह सही कैसे हो सकता है? आज का प्रश्न यह है कि अगर इस्लाम के नाम पर उस घटना को सही ठहराने वाले लोग हैं तो बाकी धर्म के लोग उदार क्यों रहें? अगर मस्जिद में कोई पूजा-अर्चना नहीं हो सकती, तो मंदिर में ऐसी किसी आजादी को क्यों बने रहने दिया जाए?

लड़ाई नहीं, स्पर्धा है कट्टरता की

लड़ाई कट्टरता के खिलाफ नहीं है। स्पर्धा कट्टर होने की है। जब ऐसी स्पर्धा होगी तो गले उनके भी कटेंगे जो कट्टरता के खिलाफ बोलेंगे। और, गले उनके भी कटने वाले हैं जो कट्टर होने से रोकेंगे।

फैजल ख़ान और मोहम्मद चांद ने श्री कृष्ण मंदिर में जो परिक्रमा की, दो हिन्दू भाइयों के साथ मिलकर भाईचारगी का संदेश देना चाहा- उसकी चर्चा कोई नहीं करना चाहता। क्योंकि, यह उदाहरण दोनों पक्ष के कट्टरपंथियों को सूट नहीं करता। यह उदाहरण कट्टरता की ओर बढ़ने से हमें रोक सकता है। कट्टरपंथियों को उदारवादी होने की ओर अग्रसर कर सकता है। लिहाजा ऐसे उदाहरण की चर्चा न की जाए। 'मंदिर में नमाज' के 'गुनाह' की केवल चर्चा होगी। इस बहाने एक धर्म के कट्टरवाद का विरोध तो होगा, मगर उसी क्षण जिस नयी कट्टरता को जन्म दिया जा रहा है उससे आंखें मूंद ली जाएगी।

चार दोस्तों ने सर्वधर्म समभाव का मकसद लेकर जो सफर शुरू किया था, उसकी तो शवयात्रा निकाल दी गयी है। किसने इस पवित्र भावना का ख़ून किया? वह ख़ूनी पकड़ में कभी नहीं आएगा। मगर, वह हमारे ही बीच है। हममें से ही है। हम उंगली दिखा रहे हैं कि सर्वधर्म समभाव की सोच रखने वाले गलत हैं। मगर, गलत कौन है यह हमारी ही बाकी उंगलियां बता रही हैं।

Next Story
Share it