खुद को देश का नंबर-1 कहने वाले हिंदी के अखबार दैनिक जागरण और उसी समूह से प्रकाशित दूसरे अखबार ने पहले पन्ने पर एक खबर प्लांट की है- `कठुआ में बच्ची के साथ नहीं हुआ था दुष्कर्म'। ऐसी घिनौनी और झूठी खबर तब जबकि दिल्ली की फरेंसिक लेब की रिपोर्ट भी दुष्कर्म की पुष्टि कर रही हो। दुनिया भर को हिला देने वाली इस जघन्य वारदात में अपराधियों का पहले ही दिन से बचाव करने में जुटा समूह अपने गिरने की हर सीमा को पार करता जा रहा है। सब कुछ उसके हाथ में है पर फिर भी उसका किसी कानूनी प्रक्रिया में भरोसा नहीं है। बाकायदा मंत्रियों की अगुआई में आरोपियों की गिरफ्तारी का विरोध, चार्जशीट पेश किए जाने का विरोध, पीड़ित परिवार की वकील का विरोध। अब यह कि `दुष्कर्म हुआ ही नहीं था`। बाकी सिर्फ यही है कि हत्या भी नहीं हुई। वो बच्ची थी ही नहीं। अखबार ने, जाहिर है कि उसके पीछे की ताकत ने, इस खबर के लिए एक झूठ गढ़ा है कि कठुआ जिला अस्पताल से पोस्टमॉर्टम की दो रिपोर्ट्स भेजी गई थीं। यह सफेद झूठ है। 17 जनवरी को बच्ची का शव बरामद होने के बाद कठुआ के जिला अस्पताल में दिन के ढाई बजे पोस्टमॉर्टम हुआ था। दूसरा झूठ है कि पोस्टमॉर्टम में दुष्कर्म का जिक्र नहीं है। आमतौर पर पोस्टमॉर्टम में हाइमन, योनि पर लगी चोट, खून के निशान, आदि की विस्तृत रिपोर्ट दी जाती है जिसके आधार पर दुष्कर्म के बारे में निष्कर्ष निकाला जाता है। यहां यह भी याद रखना होगा कि चार्जशीट में एसआई दत्ता और तिलक राज को भी साजिश में शामिल माना गया है। सबूतों को नष्ट करने के लिए मृतक बच्ची के कपड़े भी धो दिए गए थे। श्रीनगर एफएसएल किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया तो नमूने दिल्ली भेजे गए थे। दिल्ली की फरेंसिक लैब की रिपोर्ट ही अखबार के झूठ को तार-तार करने के लिए काफी है।
एफएसएल रिपोर्ट के मुताबिक-
1- पीड़िता के फ्रॉक और सलवार पर स्पष्ट खून के धब्बे मिले जो उसके डीएनए प्रफाइल से मैच खाते हैं।
2- योनि के धब्बों में भी खून था जो पीड़िता का था।
3- पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट के अनुसार योनि पर हाइमन क्षत (चोट पहुंची) थी।
4- योनि के भीतर खून के धब्बों वाले डिस्चार्ज थे।
5- दिल्ली के ही मेडिकल एक्सपर्ट्स ने निष्कर्ष दिया कि पीड़िता की हत्या से पहले उसके साथ बलात्कार हुआ।
6- बलात्कार एक से ज्यादा लोगों ने किया।
7- चिकित्सीय राय ही यह स्थापित करती है कि पीड़िता को भोजन के बिना रखा गया और सिडेटिव दिया गया।
8- मौत की वजह गला घोंटा जाना था जिसकी वजह से हार्ट अटैक हुआ।
9- मंदिर के भीतर से जो बाल मिला, उसकी डीएनए प्रोफाइलिंग भी मृतक बच्ची की डीएनए प्रफाइल से मिलती है। हत्या की जगह से मिले बाल की डीएनए प्रोफाइलिंग आरोपी के डीएनए से मैच करती है।
एसएफएल की रिपोर्ट के तमाम बिंदु क्राइम ब्रांच ने चार्जशीट के साथ कोर्ट में भी पेश किए हैं। चार्जशीट की कॉपी भी अंग्रेजी और हिंदी में नेट पर भी उपलब्ध है जिससे अखबार भी जाहिर है, वाकिफ होगा ही। लेकिन, इस तरह झूठ फैलाना और कोर्ट के फैसले से पहले ही फैसला देना बेमकसद नहीं हो सकता है। खबर में उसकी भाषा और तरीका भी घिनौना है। हाइमन फटे होने का उल्लेख करते हुए किसी गाइनोकोलोजिस्ट के हवाले से यह पाठ पढ़ाया जाने लगता है कि ऐसा घुड़सवारी, तैराकी, साइकलिंग आदि जोर के काम से भी हो सकता है। तथ्यों की जलेबी बनाते हुए देवस्थान पर लोगों के रोज नतमस्तक होने और सफाई होने जैसे तर्क भी चिपका दिए गए हैं। देश में संविधान हो, कानून-कायदे हों तो ऐसी खबर तभी छापी जा सकती है जब मीडिया मालिकान किसी तरह की कार्रवाई को लेकर निश्चिंत हों। ऐसे में शक स्वाभाविक है कि कोई दूसरी ही ताकत उससे ऐसा करा रही है। वरना यह वही अखबार है जिसका मालिक उत्तर प्रदेश की सपा-बसपा सरकार के दौरान अपने खिलाफ `हल्ला बोल` अभियान शुरू कर दिए जाने पर एक नेता के चरणों तक पहुंच गया था।
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यह भी गौरतलब है कि `दैनिक जागरण` समूह आरएसएस का ही अघोषित अखबार है। हर दंगे में उसकी खबरों की भूमिका की पड़ताल की जा सकती है। भाजपा की कृपा से अखबार मालिक राज्यसभा भी पहुंचते रहे हैं। लेकिन, फिलहाल जबकि लगभग पूरा मीडिया कठपुतली की तरह नाच रहा हो तो कोई दूसरे मीडिया समूह भी कोर्ट का इंतजार किए बिना ऐसा फैसला सुना सकता है कि बच्ची से दुष्कर्म नहीं हुआ। ऐसी कारगुजारियों में जागरण का बड़ा भाई ही साबित होता रहा `जी न्यूज` तो पहले ही यह फैसला सुना चुका है। मुज़फ़्फ़रनगर-शामली के 2013 के दंगों को भड़काने में भी मीडिया की बड़ी भूमिका रही थी। उस मुजफ्फरनगर जिले की जानसठ तहसील के कवाल गांव में इसी `दैनिक जागरण` ने 27 अगस्त को हुई तीन युवकों की हत्या की खबर लिखने में न पत्रकारिता के नियमों का पालन किया था, न सामाजिक मर्यादाओं का।
28 अगस्त के दैनिक जागरण में जो खबर छपी थी उसका शीर्षक था- 'सीने पर चढ़कर काटी थी सांसों की डोर'। बेहद भड़काऊ भाषा में छापी कई इस खबर के बीच 'लाइव' लिखकर एक बॉक्स बनाकर इस तरह वर्णन किया गया था जैसे रिपोर्टर मौके से लाइव कर रहा हो। इससे पहले ही कई महीनों से अखबारों की खबरें उस तैयारी का हिस्सा लगती थीं जो मुजफ्फरनगर-शामली की हिंसा के लिए की जा रही थी। इसी अखबार ने 23 सितंबर 2013 को लुटे-पिटे अल्पसंख्यकों के शिविर को लेकर एक खबर 'शरणार्थी शिविर में मौज मना रहे हैं दो हजार मुफ्तखोर', शीर्षक से प्रकाशित की थी। लेकिन, तब तो बाकी अखबार भी इसी रंग में थे। यहां तक कि तहलका की रिपोर्ट भी शर्मनाक ढंग से लिखी गई थी।
सवाल यही है कठुआ प्रकरण में गढ़ी गई इस खबर पर क्या न्यायालय संज्ञान लेगा। सरकार से तो ऐसी अपेक्षा ही फिजूल है। इस खबर ने यह आशंका जरूर प्रबल कर दी है कि कठुआ कांड में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा दुख जता दिए जाने के बावजूद भगवा ब्रिगेड की साजिशें थमने वाली नहीं हैं। दो चार्जशीटों के अलावा भी वह कुछ भी प्लांट कर सकती है। लेकिन, इस तरह न्याय को बाधित करने की कोशिशें भले ही हों पर इन ताकतों के चेहरे की गंदगी बढ़ती ही जाएगी। अफसोस यह कि अपने घिनौने कारनामों से ये लोग तिरंगे, देश, समाज और देश के विभिन्न इदारों को भी दुनिया की निगाहों में गिरा रहे हैं।